चुनाव आए नहीं कि पेड
न्यूज की चर्चा शुरू हो जाती है। संपादकीय लिखे जाते हैं। कभी कभी टीवी पर इस पर चर्चा
भी देखने को मिल जाती है। चुनाव आयोग ने पेड न्यूज पर नजर रखने के लिए जिला स्तर तक
की समीतियां बना दी हैं।
पर ये पेड न्यूज है
किस बला का नाम? चुनाव आयोग के अनुसार यह एक खतरनाक बला है, स्वच्छ चुनाव प्रणाली की
दुशमन। पैसे दे समाचार लिखवाना यानि कि पेड न्यूज। अब यह कैसे मालूम पड़ेगा कि कोई
समाचार पैसे दे कर लिखवाया है या फिर सचमुच एक सही समाचार है।
भारतीय चुनाव आयोग
के पीके दाश जी का कहना है कि प्रेस काउंसिल से चुनाव आयोग को कोई खास मदद नहीं मिली।
काउंसिल ने तो जिला स्तर पर उसके प्रतिनिधी देने में भी उसकी असमर्थता जता दी।
वैसे भैये प्रेस काउंसिल
तो क्या अच्छे अच्छे को न्यूज की परिभाषा ही नहीं मालूम। खैर चुनाव आयोग के अनुसार
विज्ञापन जैसा समाचार छपे तो वह पेड न्यूज! पर इसमें जोरदार तो यह है कि यदि उम्मीदवार
ऐसे समाचार के लिए खर्च को चुनावी खर्च में बताते हुए पेड न्यूज छपवाए तो यह चुनावी
कानून का उलंघन नहीं है।
चुनाव आयोग मानता है
कि यह गलत है। इस प्रकार के समाचार मतदाता और मतदान को प्रभावित करते हैं। पर अखबारों
के विरुद्ध वे कुछ नहीं कर सकते। प्रेस काउंसिल के पास भी कोई प्रभावी हल नहीं है।
चुनाव आयोग ने अख्बारों के विरुद्ध कार्यवाही के लिए सत्ता के लिए प्रस्ताव रखा है,
पर वह काफी समय से लम्बित है।
वह हो भी जाए तो भी
आसा नहीं है पेड न्यूज को पकड़ पाना।
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